कुछ दिन पहले ही विश्व बैंक ने एक अध्ययन जारी किया है। अध्ययन के अनुसार अगले दो दशक तक भारतीय बाजार में प्रत्येक महीने करीब ८,५०,००० नौकरियां उपलब्ध होंगी। वर्ष २०००- २०१० के दौरान भारतीय बाजार के लिए यह आंकड़ा ५,००,००० प्रति माह ही रहा है। ऐसे में आगे बढऩे के लिए अतिरिक्त रोजगार मुहैया कराना एक बड़ी चुनौती है। लेकिन पिछले दशक में श्रमिकों के वेतन में बढ़ोतरी और स्वनियोजित व अस्थायी श्रमिकों की वित्तीय हालत सुधरने के बावजूद रोजगार की गुणवत्ता में सुधार लाना, रोजगार बढ़ाने से ज्यादा मुश्किल चुनौती है।
समस्या यह है कि कुल नियुक्त श्रमिकों में से एक तिहाई ऐसे हैं, जो दैनिक, अनियमित आधार पर काम करते हैं। लेकिन निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में कार्यरत व नियमित तौर पर वेतन प्राप्त करने वाले कर्मचारियों की संख्या में पिछले दशक के दौरान कोई खास बदलाव नहीं हुआ है और कुल कर्मचारियों में इनका हिस्सा महज १६.६७ फीसदी ही है।
दिलचस्प है कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के बावजूद कुल श्रमिकों में स्वनियोजित श्रमिकों की ५० फीसदी हिस्सेदारी है, जिनमें से ज्यादातर कृषि क्षेत्र से जुड़े हैं।
असली समस्या यही है। टीमलीज के चेयरमैन मनीष सबरवाल के अनुसार कृषि से जुड़े हुए लोगों की संख्या के लिहाज से इस क्षेत्र का उत्पादन बेहद कम है। मसलन ७.५ करोड़ भारतीय ११ करोड़ टन दूध का उत्पादन करते हैं जबकि १ लाख अमेरिकी ७ करोड़ टन दूध का उत्पादन करते हैं। उन्होंने कहा कि जब तक भारत कुल श्रम संख्या में कृषि क्षेत्र के हिस्से को घटाकर १५ फीसदी तक नहीं लाता, तब तक देश से गरीबी समाप्त नहीं की जा सकती। दिलचस्प है कि १९०० में करीब ४१ फीसदी अमेरिकी कृषि क्षेत्र में काम किया करते थे। लेकिन अमेरिका में कृषि के लिए यह आंकड़ा २ फीसदी से भी कम है। चीन में माओ के मरने के बाद अब तक करीब ४० करोड़ लोग गैर-कृषि क्षेत्रों से जुड़ गए हैं।
सबरवाल के अनुसार अगले २० साल के दौरान देश के श्रमिक बाजार में प्रभावी तरीके से होने वाले चार परिवर्तन करीब १६.३ करोड़ भारतीयों को गरीबी से बचा सकते हैं। ये परिवर्तन हैं- ग्रामीण से शहरी, असंगठित से संगठित, निर्वाह लायक स्वनियोजित से अच्छे वेतन वाली नौकरी और कृषि से गैर-कृषि क्षेत्र में श्रमिकों में इजाफा करना। विकसित अर्थव्यवस्थाओं का अनुभव यही कहता है कि ऐसा तभी मुमकिन है जब बच्चों को शुरुआत में ही बेहतर पोषण मिले। दूसरा, कुशल श्रमिकों की बढ़ती मांग देखते हुए शिक्षा की गुणवत्ता सुधारी जाए, जिससे उन्हें जरूरी प्रशिक्षण मुहैया कराया जा सके। उच्च शिक्षित श्रमिकों को मिलने वाले मोटे वेतन से भी यह साफ जाहिर होता है।
सबसे पहले हम बचपन में खराब पोषण की समस्या पर ध्यान देते हैं। यह एक ऐसा संकेतक है, जिस पर दक्षिण एशिया का प्रदर्शन सबसे खराब है। यहां तक कि उप सहारा अफ्रीकी देश भी इस मामले में दक्षिण एशिया से आगे हैं। यूं तो इस संकेतक पर भारत का प्रदर्शन अपने पड़ोसी देशों से बेहतर है लेकिन इसकी जमीनी हकीकत कुछ बेहतर नहीं है। मसलन, चाइल्ड राइट्स ऐंड यू (क्राई) द्वारा हाल ही में जारी रिपोर्ट पर जरा गौर फरमाया जाए। क्राई के सर्वेक्षण में दिखाया गया है कि बृहनमुंबई नगर निगम (बीएमसी) द्वारा चलाए जा रहे ज्यादातर विद्यालयों में बच्चों को दोपहर के खाने में बिना नमक की 'खिचड़ी' दी जाती है, जिसमें रेत और कंकड़ मिलना आम बात है।
क्राई के स्वयंसेवक नितिन वाधवानी बताते हैं कि सूचना का अधिकार के तहत किए गए आवेदन में पता चला है विषाक्त भोजन के मामले सामने आने के बाद छात्रों को दूध की आपूर्ति भी बंद कर दी गई। उन्होंने बताया, 'सरकारी प्रस्ताव के अनुसार विद्यालयों में पढऩे वाले छात्रों को फल, मूंगफली, सोया बिस्कुट और अन्य पोषक उत्पाद भोजन में दिए
जाने चाहिए।'
अगर देश की आर्थिक राजधानी में इस योजना की यह हालत है, तो देश के कम विकसित इलाकों में हालात क्या होंगे, इसकी कल्पना करना मुश्किल नहीं है। दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है रोजगार बढ़ाने के लिए शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करना।
हकीकत यह है कि देश में जल्द ही विरोधाभास की स्थिति आने वाली है। हमारे देश के पास दुनिया में श्रमिकों की सबसे बड़ी फौज तो होगी लेकिन उनके पास उत्पादक रोजगार के लिए सही रवैया और जरूरी कौशल नहीं होगा। भारत में २५ साल से कम उम्र के करीब ५५ करोड़ लोग हैं और इनमें से महज ११ फीसदी ही उच्च शिक्षा संस्थानों में दाखिला ले पाते हैं जबकि वैश्विक स्तर पर यह आंकड़ा २३ फीसदी है। इसके नतीजे जगजाहिर हैं। यहां एक कंपनी के अनुभव पर ध्यान देना बेहद जरूरी है, जिसे अपनी भारतीय इकाई के लिए डेवलपरों की नियुक्ति में काफी जद्दोजहद करनी पड़ी। कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, 'हमारे यहां नौकरी के लिए आवेदन करने वाले प्रतिभागियों को देखकर मुझे बेहद खराब लगा। लेकिन खुद को डेवलपर कहने वाले इन आवेदकों को सॉफ्टवेयर विकसित करने के बुनियादी सिद्घांतों की भी सही जानकारी नहीं थी।'
उन्होंने बताया, 'हमारे द्वारा लिए गए अनगिनत साक्षात्कारों में मुझे एहसास हुआ कि ज्यादातर डेवलपर अपनी पूरी ऊर्जा इसमें लगा देते हैं कि काम को कैसे पूरा किया जाए? भले ही वह काम कितना भी कच्चा हो। उनके साक्षात्कार के दौरान हमें यह देखकर बेहद हैरानी हुई कि पांच साल का अनुभव रखने वाले प्रतिभागी भी डिजाइन पैटर्न, स्ट्रक्चर्ड कोडिंग जैसे बुनियादी सिद्घांत नहीं जानते थे। कुछ तो इतने ढीठ थे कि उन्होंने साक्षात्कार लेने वाले अधिकारी को यहां तक कह डाला कि ये सब काफी आधुनिक चीजें हैं और सॉफ्टवेयर डेवलपिंग में इनकी जरूरत नहीं होती है।'
राष्ट्रीय श्रम विकास परिषद की रणनीति प्रमुख गौरी गुप्ता के अनुसार भारत में २०२२ तक करीब ५२.६ करोड़ प्रशिक्षित श्रमिकों की जरूरत होगी। अगर ऊपर बताए गए कंपनी के अनुभव को ध्यान में रखा जाए, तो यह कहना गलत नहीं होगा कि हमें अभी लंबा रास्ता तय करना है।
समस्या यह है कि कुल नियुक्त श्रमिकों में से एक तिहाई ऐसे हैं, जो दैनिक, अनियमित आधार पर काम करते हैं। लेकिन निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में कार्यरत व नियमित तौर पर वेतन प्राप्त करने वाले कर्मचारियों की संख्या में पिछले दशक के दौरान कोई खास बदलाव नहीं हुआ है और कुल कर्मचारियों में इनका हिस्सा महज १६.६७ फीसदी ही है।
दिलचस्प है कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के बावजूद कुल श्रमिकों में स्वनियोजित श्रमिकों की ५० फीसदी हिस्सेदारी है, जिनमें से ज्यादातर कृषि क्षेत्र से जुड़े हैं।
असली समस्या यही है। टीमलीज के चेयरमैन मनीष सबरवाल के अनुसार कृषि से जुड़े हुए लोगों की संख्या के लिहाज से इस क्षेत्र का उत्पादन बेहद कम है। मसलन ७.५ करोड़ भारतीय ११ करोड़ टन दूध का उत्पादन करते हैं जबकि १ लाख अमेरिकी ७ करोड़ टन दूध का उत्पादन करते हैं। उन्होंने कहा कि जब तक भारत कुल श्रम संख्या में कृषि क्षेत्र के हिस्से को घटाकर १५ फीसदी तक नहीं लाता, तब तक देश से गरीबी समाप्त नहीं की जा सकती। दिलचस्प है कि १९०० में करीब ४१ फीसदी अमेरिकी कृषि क्षेत्र में काम किया करते थे। लेकिन अमेरिका में कृषि के लिए यह आंकड़ा २ फीसदी से भी कम है। चीन में माओ के मरने के बाद अब तक करीब ४० करोड़ लोग गैर-कृषि क्षेत्रों से जुड़ गए हैं।
सबरवाल के अनुसार अगले २० साल के दौरान देश के श्रमिक बाजार में प्रभावी तरीके से होने वाले चार परिवर्तन करीब १६.३ करोड़ भारतीयों को गरीबी से बचा सकते हैं। ये परिवर्तन हैं- ग्रामीण से शहरी, असंगठित से संगठित, निर्वाह लायक स्वनियोजित से अच्छे वेतन वाली नौकरी और कृषि से गैर-कृषि क्षेत्र में श्रमिकों में इजाफा करना। विकसित अर्थव्यवस्थाओं का अनुभव यही कहता है कि ऐसा तभी मुमकिन है जब बच्चों को शुरुआत में ही बेहतर पोषण मिले। दूसरा, कुशल श्रमिकों की बढ़ती मांग देखते हुए शिक्षा की गुणवत्ता सुधारी जाए, जिससे उन्हें जरूरी प्रशिक्षण मुहैया कराया जा सके। उच्च शिक्षित श्रमिकों को मिलने वाले मोटे वेतन से भी यह साफ जाहिर होता है।
सबसे पहले हम बचपन में खराब पोषण की समस्या पर ध्यान देते हैं। यह एक ऐसा संकेतक है, जिस पर दक्षिण एशिया का प्रदर्शन सबसे खराब है। यहां तक कि उप सहारा अफ्रीकी देश भी इस मामले में दक्षिण एशिया से आगे हैं। यूं तो इस संकेतक पर भारत का प्रदर्शन अपने पड़ोसी देशों से बेहतर है लेकिन इसकी जमीनी हकीकत कुछ बेहतर नहीं है। मसलन, चाइल्ड राइट्स ऐंड यू (क्राई) द्वारा हाल ही में जारी रिपोर्ट पर जरा गौर फरमाया जाए। क्राई के सर्वेक्षण में दिखाया गया है कि बृहनमुंबई नगर निगम (बीएमसी) द्वारा चलाए जा रहे ज्यादातर विद्यालयों में बच्चों को दोपहर के खाने में बिना नमक की 'खिचड़ी' दी जाती है, जिसमें रेत और कंकड़ मिलना आम बात है।
क्राई के स्वयंसेवक नितिन वाधवानी बताते हैं कि सूचना का अधिकार के तहत किए गए आवेदन में पता चला है विषाक्त भोजन के मामले सामने आने के बाद छात्रों को दूध की आपूर्ति भी बंद कर दी गई। उन्होंने बताया, 'सरकारी प्रस्ताव के अनुसार विद्यालयों में पढऩे वाले छात्रों को फल, मूंगफली, सोया बिस्कुट और अन्य पोषक उत्पाद भोजन में दिए
जाने चाहिए।'
अगर देश की आर्थिक राजधानी में इस योजना की यह हालत है, तो देश के कम विकसित इलाकों में हालात क्या होंगे, इसकी कल्पना करना मुश्किल नहीं है। दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है रोजगार बढ़ाने के लिए शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करना।
हकीकत यह है कि देश में जल्द ही विरोधाभास की स्थिति आने वाली है। हमारे देश के पास दुनिया में श्रमिकों की सबसे बड़ी फौज तो होगी लेकिन उनके पास उत्पादक रोजगार के लिए सही रवैया और जरूरी कौशल नहीं होगा। भारत में २५ साल से कम उम्र के करीब ५५ करोड़ लोग हैं और इनमें से महज ११ फीसदी ही उच्च शिक्षा संस्थानों में दाखिला ले पाते हैं जबकि वैश्विक स्तर पर यह आंकड़ा २३ फीसदी है। इसके नतीजे जगजाहिर हैं। यहां एक कंपनी के अनुभव पर ध्यान देना बेहद जरूरी है, जिसे अपनी भारतीय इकाई के लिए डेवलपरों की नियुक्ति में काफी जद्दोजहद करनी पड़ी। कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, 'हमारे यहां नौकरी के लिए आवेदन करने वाले प्रतिभागियों को देखकर मुझे बेहद खराब लगा। लेकिन खुद को डेवलपर कहने वाले इन आवेदकों को सॉफ्टवेयर विकसित करने के बुनियादी सिद्घांतों की भी सही जानकारी नहीं थी।'
उन्होंने बताया, 'हमारे द्वारा लिए गए अनगिनत साक्षात्कारों में मुझे एहसास हुआ कि ज्यादातर डेवलपर अपनी पूरी ऊर्जा इसमें लगा देते हैं कि काम को कैसे पूरा किया जाए? भले ही वह काम कितना भी कच्चा हो। उनके साक्षात्कार के दौरान हमें यह देखकर बेहद हैरानी हुई कि पांच साल का अनुभव रखने वाले प्रतिभागी भी डिजाइन पैटर्न, स्ट्रक्चर्ड कोडिंग जैसे बुनियादी सिद्घांत नहीं जानते थे। कुछ तो इतने ढीठ थे कि उन्होंने साक्षात्कार लेने वाले अधिकारी को यहां तक कह डाला कि ये सब काफी आधुनिक चीजें हैं और सॉफ्टवेयर डेवलपिंग में इनकी जरूरत नहीं होती है।'
राष्ट्रीय श्रम विकास परिषद की रणनीति प्रमुख गौरी गुप्ता के अनुसार भारत में २०२२ तक करीब ५२.६ करोड़ प्रशिक्षित श्रमिकों की जरूरत होगी। अगर ऊपर बताए गए कंपनी के अनुभव को ध्यान में रखा जाए, तो यह कहना गलत नहीं होगा कि हमें अभी लंबा रास्ता तय करना है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें