कुछ लोगों का मानना है कि देश में स्नातक पाठ्यक्रम चार वर्षों का कर दिया जाना चाहिए, लेकिन जैसा कि हर नई बहस के साथ होता है इस चर्चा के बाद शिक्षकों और माता-पिता के बीच ऐसे कदम के फायदों को लेकर बहस मुबाहिसे की शुरुआत हो चुकी है। पहले मैं अपनी स्थिति स्पष्ट कर दूं। मुझे इस बात की तगड़ी अनुभूति होती है कि चार वर्षीय पाठ्यक्रम तीन वर्ष की पढ़ाई के मौजूदा पाठ्यक्रम से कई गुना बेहतर है। मैं यह भी स्पष्ट कर देता हूं कि मेरे विचार से चार वर्षीय पाठ्यक्रम को इस तरह नहीं देखा जाना चाहिए मानो बच्चों को अपने विशेषज्ञता वाले विषय में एक साल और पढ़ाई करनी पड़ेगी। मेरे खयाल से अतिरिक्त वर्ष बच्चों को यह तय करने का अवसर देगा कि वे आखिर क्या करना चाहते हैं। इसलिए मेरे लिए तो सही सवाल यह होगा कि क्या यह अतिरिक्त वर्ष बच्चों को उस समाज का उत्पादक सदस्य बनाने में मदद करेगा जिसमें उनको रहना है और अपना योगदान देना है।
बच्चों के किसी खास विषय में विशेषज्ञता हासिल करने के पीछे मुख्य रूप से दो वजहें होती हैं: (अ) बड़ों का दबाव और माता-पिता का सुझाव या उनका आदेश (ब) उस विषय में दाखिला नहीं मिल पाना जिसमें उनके घर के बड़े अथवा उनके माता-पिता दाखिला दिलाना चाहते थे। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मेरे खयाल से १६ साल के एक बच्चे के लिए यह तय कर पाना थोड़ा मुश्किल है कि आखिर उसका करियर क्या हो? इस उम्र के किसी बच्चे या बच्ची को कक्षा ११ में यह निर्णय लेना पड़ता है कि वह वाणिज्य की पढ़ाई करना चाहता है या विज्ञान की। अगर वह विज्ञान का चयन करता है तो दर्शन शास्त्र में पीएचडी की डिग्री ले सकता है लेकिन अगर वह वाणिज्य का चयन करता है तो यह काम मुश्किल होगा। शायद तब इसके लिए उसे विदेश जाकर किसी उच्च शिक्षा संस्थान में दाखिला लेना पड़े। इसी तरह, कक्षा ११ में मानवशास्त्र का चयन करने वाले किसी बच्चे के लिए बाद में भौतिकी की पढ़ाई कर पाना बेहद मुश्किल होगा। मैं यह मानने से इनकार करता हूं कि १६ साल का कोई बच्चा यह तय कर सकता है कि उसके लिए दर्शन शास्त्र और भौतिकी में से कौन सा विषय बेहतर होगा। अगर हम वाकई ऐसा सोचते हैं कि उस उम्र में बच्चे अपने करियर की दिशा निर्धारित कर पाने की क्षमता रखते हैं तो फिर उसी सोच के आधार पर हमें बच्चों को मतदान करने, विवाह करने, शराब पीने, वाहन चलाने और ऐसे ही तमाम दूसरे काम करने की अनुमति भी दे देनी चाहिए। अगर हम यह सब करने के इच्छुक नहीं है तो फिर पहले वाले पर इस कदर जोर कैसे दे सकते हैं?
मेर लिए चार साल के स्नातक पाठ्यक्रम में शामिल किया गया एक अतिरिक्त वर्ष कुछ उन बातों के लिए होगा जिन्हें हम उस अतिरिक्त वर्ष में अंजाम दे सकते हैं। अगर यह चार वर्षीय पाठ्यक्रम मेरे नजरिये से तैयार किया जाए तो उसमें बच्चे मनचाहे विषयों में अध्ययन कर सकेंगे। उदाहरण के लिए वे भौतिकी और दर्शन, अर्थशास्त्र और कला आदि की साथ-साथ पढ़ाई कर सकेंगे। इन तमाम पाठ्यक्रमों में पढ़ाई के लिए शुरुआती स्तर पर विषय का थोड़ा ज्ञान तो आवश्यक है ही। निचले दर्जे के स्नातक पाठ्यक्रमों में पढ़ाई का स्तर उससे अधिक न होना जितना बच्चा कक्षा १० में पढ़कर निकलता है। एक वर्ष का अतिरिक्त समय बच्चों को अपनी पसंद और नापसंद तय करने का समय देगा। इस आधार पर वह यह बात ज्यादा बेहतर तरीके से तय कर पाएगा कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं? इस बात को एक उदाहरण से समझते हैं, किसी बच्चे को भौतिकी में विशेषज्ञता इसलिए नहीं करनी चाहिए क्योंकि उसे पता ही नहीं है कि दर्शन क्या है। बल्कि उसे दर्शन की मूलभूत जानकारियां हासिल करने के बाद ही यह तय करना चाहिए कि वह भौतिकी पढऩा चाहता है अथवा नहीं। यहां दो स्पष्टीकरण देना उचित रहेगा। पहला, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि युवाओं में कम उम्र में अपने अनुकूल विषय का चयन करने की काबिलियत नहीं होती है। इसके बजाय मेंरा कहने का मतलब यह है कि अधिकांश बच्चे ऐसा इसलिए भी नहीं कर पाते क्योंकि कॉलेज में उनको जो विषय पढऩे के लिए मिलते हैं उनमें से अधिकांश विद्यालय स्तर पर होते ही नहीं हैं। दूसरी बात, कहने का तात्पर्य यह कि माता-पिता को ४ वर्षीय पाठ्यक्रम में भी बच्चों पर अपनी पसंद थोपनी नहीं चाहिए बल्कि उनको अपना नजरिया तय करने का मौका देना चाहिए।
उच्च शिक्षा का एक बहुत बड़ा लक्ष्य है बड़ी संख्या में ऐसे लोग तैयार करना जो सामाजिक समस्याएं हल करने में मददगार साबित हो सकें। इसलिए उनका प्रशिक्षण केवल किसी खास विषय में विशेषज्ञता कायम करने के लिए नहीं होता है बल्कि उसका संबंध उनके भीतर प्रेरणा के स्तर से भी होता है। हमारे समाज में सबके लिए बेहतर स्वास्थ्य सुनिश्चित करना एक ज्वलंत मुद्दा है। इसके लिए न केवल चिकित्सकीय विशेषज्ञता की आवश्यकता होगी बल्कि अस्पतालों के प्रबंधन और जन स्वास्थ्य आदि के जानकार लोगों की भी उतनी ही जरूरत होगी। बेहतर चिकित्सकीय उपकरण तैयार करने के लिए जहां इंजीनियरों और वैज्ञानिकों की दरकार होगी वहीं इन्हें उचित मूल्य पर तैयार करने की खातिर अर्थशास्त्रियों और उद्यमियों की आवश्यकता होगी। ऐसे में जबकि किसी एक समस्या को हल करने के लिए सभी लोगों को एकसाथ मिलकर काम करना पड़े तो ऐसे में एक व्यक्ति की केवल एक विषय में विशेषज्ञता का विचार कोई बहुत अच्छा विचार नहीं है। हमारी मौजूदा तीन वर्षीय पाठ्यक्रम वाली व्यवस्था में किसी चिकित्सक को अर्थशास्त्र की कार्यप्रणाली के बारे में शायद ही कोई जानकारी हो। अर्थशास्त्रियों के साथ भी ठीक यही बात है।
लोग चार वर्षीय पाठ्यक्रम को लेकर जिस तरह सोच रहे हैं उससे मैं चिंतित हूं। याद रखिए, मेरा मुख्य लक्ष्य यह है कि छात्र अधिक सूचित होकर कोई निर्णय लें। मान लीजिए कल को कोई भौतिकीविद अचानक संगीत को अपनाना चाहे तो क्या होगा? या फिर कोई दर्शनशास्त्री भौतिकी के नियमों को समझने की इच्छा रखे तो? मुझे डर है कि जिस तरह से इन तमाम बातों पर चर्चा हो रही है वैसे तो हम चार वर्षीय पाठ्यक्रम के पीछे की मूल भावना को ही दरकिनार कर देंगे। कल्पना कीजिए आपके अंकल जो पेशे से वकील हैं उनका बेटा वकालत के अलावा कुछ और पढ़ रहा हो और आप भी अपने मां-बाप की तरह अर्थशास्त्र की पढ़ाई नहीं कर रहे हों तो यह बात सोचना कितना रोमांचित करता है। उसके लिए जरूरी है कि आप खुद यह निर्णय लें कि आप क्या पढऩा चाहते हैं। अपने माता-पिता पर यह निर्णय नहीं छोड़ें। इस काम में चार वर्ष का स्नातक पाठ्यक्रम आपकी मदद करेगा।
बच्चों के किसी खास विषय में विशेषज्ञता हासिल करने के पीछे मुख्य रूप से दो वजहें होती हैं: (अ) बड़ों का दबाव और माता-पिता का सुझाव या उनका आदेश (ब) उस विषय में दाखिला नहीं मिल पाना जिसमें उनके घर के बड़े अथवा उनके माता-पिता दाखिला दिलाना चाहते थे। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मेरे खयाल से १६ साल के एक बच्चे के लिए यह तय कर पाना थोड़ा मुश्किल है कि आखिर उसका करियर क्या हो? इस उम्र के किसी बच्चे या बच्ची को कक्षा ११ में यह निर्णय लेना पड़ता है कि वह वाणिज्य की पढ़ाई करना चाहता है या विज्ञान की। अगर वह विज्ञान का चयन करता है तो दर्शन शास्त्र में पीएचडी की डिग्री ले सकता है लेकिन अगर वह वाणिज्य का चयन करता है तो यह काम मुश्किल होगा। शायद तब इसके लिए उसे विदेश जाकर किसी उच्च शिक्षा संस्थान में दाखिला लेना पड़े। इसी तरह, कक्षा ११ में मानवशास्त्र का चयन करने वाले किसी बच्चे के लिए बाद में भौतिकी की पढ़ाई कर पाना बेहद मुश्किल होगा। मैं यह मानने से इनकार करता हूं कि १६ साल का कोई बच्चा यह तय कर सकता है कि उसके लिए दर्शन शास्त्र और भौतिकी में से कौन सा विषय बेहतर होगा। अगर हम वाकई ऐसा सोचते हैं कि उस उम्र में बच्चे अपने करियर की दिशा निर्धारित कर पाने की क्षमता रखते हैं तो फिर उसी सोच के आधार पर हमें बच्चों को मतदान करने, विवाह करने, शराब पीने, वाहन चलाने और ऐसे ही तमाम दूसरे काम करने की अनुमति भी दे देनी चाहिए। अगर हम यह सब करने के इच्छुक नहीं है तो फिर पहले वाले पर इस कदर जोर कैसे दे सकते हैं?
मेर लिए चार साल के स्नातक पाठ्यक्रम में शामिल किया गया एक अतिरिक्त वर्ष कुछ उन बातों के लिए होगा जिन्हें हम उस अतिरिक्त वर्ष में अंजाम दे सकते हैं। अगर यह चार वर्षीय पाठ्यक्रम मेरे नजरिये से तैयार किया जाए तो उसमें बच्चे मनचाहे विषयों में अध्ययन कर सकेंगे। उदाहरण के लिए वे भौतिकी और दर्शन, अर्थशास्त्र और कला आदि की साथ-साथ पढ़ाई कर सकेंगे। इन तमाम पाठ्यक्रमों में पढ़ाई के लिए शुरुआती स्तर पर विषय का थोड़ा ज्ञान तो आवश्यक है ही। निचले दर्जे के स्नातक पाठ्यक्रमों में पढ़ाई का स्तर उससे अधिक न होना जितना बच्चा कक्षा १० में पढ़कर निकलता है। एक वर्ष का अतिरिक्त समय बच्चों को अपनी पसंद और नापसंद तय करने का समय देगा। इस आधार पर वह यह बात ज्यादा बेहतर तरीके से तय कर पाएगा कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं? इस बात को एक उदाहरण से समझते हैं, किसी बच्चे को भौतिकी में विशेषज्ञता इसलिए नहीं करनी चाहिए क्योंकि उसे पता ही नहीं है कि दर्शन क्या है। बल्कि उसे दर्शन की मूलभूत जानकारियां हासिल करने के बाद ही यह तय करना चाहिए कि वह भौतिकी पढऩा चाहता है अथवा नहीं। यहां दो स्पष्टीकरण देना उचित रहेगा। पहला, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि युवाओं में कम उम्र में अपने अनुकूल विषय का चयन करने की काबिलियत नहीं होती है। इसके बजाय मेंरा कहने का मतलब यह है कि अधिकांश बच्चे ऐसा इसलिए भी नहीं कर पाते क्योंकि कॉलेज में उनको जो विषय पढऩे के लिए मिलते हैं उनमें से अधिकांश विद्यालय स्तर पर होते ही नहीं हैं। दूसरी बात, कहने का तात्पर्य यह कि माता-पिता को ४ वर्षीय पाठ्यक्रम में भी बच्चों पर अपनी पसंद थोपनी नहीं चाहिए बल्कि उनको अपना नजरिया तय करने का मौका देना चाहिए।
उच्च शिक्षा का एक बहुत बड़ा लक्ष्य है बड़ी संख्या में ऐसे लोग तैयार करना जो सामाजिक समस्याएं हल करने में मददगार साबित हो सकें। इसलिए उनका प्रशिक्षण केवल किसी खास विषय में विशेषज्ञता कायम करने के लिए नहीं होता है बल्कि उसका संबंध उनके भीतर प्रेरणा के स्तर से भी होता है। हमारे समाज में सबके लिए बेहतर स्वास्थ्य सुनिश्चित करना एक ज्वलंत मुद्दा है। इसके लिए न केवल चिकित्सकीय विशेषज्ञता की आवश्यकता होगी बल्कि अस्पतालों के प्रबंधन और जन स्वास्थ्य आदि के जानकार लोगों की भी उतनी ही जरूरत होगी। बेहतर चिकित्सकीय उपकरण तैयार करने के लिए जहां इंजीनियरों और वैज्ञानिकों की दरकार होगी वहीं इन्हें उचित मूल्य पर तैयार करने की खातिर अर्थशास्त्रियों और उद्यमियों की आवश्यकता होगी। ऐसे में जबकि किसी एक समस्या को हल करने के लिए सभी लोगों को एकसाथ मिलकर काम करना पड़े तो ऐसे में एक व्यक्ति की केवल एक विषय में विशेषज्ञता का विचार कोई बहुत अच्छा विचार नहीं है। हमारी मौजूदा तीन वर्षीय पाठ्यक्रम वाली व्यवस्था में किसी चिकित्सक को अर्थशास्त्र की कार्यप्रणाली के बारे में शायद ही कोई जानकारी हो। अर्थशास्त्रियों के साथ भी ठीक यही बात है।
लोग चार वर्षीय पाठ्यक्रम को लेकर जिस तरह सोच रहे हैं उससे मैं चिंतित हूं। याद रखिए, मेरा मुख्य लक्ष्य यह है कि छात्र अधिक सूचित होकर कोई निर्णय लें। मान लीजिए कल को कोई भौतिकीविद अचानक संगीत को अपनाना चाहे तो क्या होगा? या फिर कोई दर्शनशास्त्री भौतिकी के नियमों को समझने की इच्छा रखे तो? मुझे डर है कि जिस तरह से इन तमाम बातों पर चर्चा हो रही है वैसे तो हम चार वर्षीय पाठ्यक्रम के पीछे की मूल भावना को ही दरकिनार कर देंगे। कल्पना कीजिए आपके अंकल जो पेशे से वकील हैं उनका बेटा वकालत के अलावा कुछ और पढ़ रहा हो और आप भी अपने मां-बाप की तरह अर्थशास्त्र की पढ़ाई नहीं कर रहे हों तो यह बात सोचना कितना रोमांचित करता है। उसके लिए जरूरी है कि आप खुद यह निर्णय लें कि आप क्या पढऩा चाहते हैं। अपने माता-पिता पर यह निर्णय नहीं छोड़ें। इस काम में चार वर्ष का स्नातक पाठ्यक्रम आपकी मदद करेगा।
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